Ancient India :-
Ancient India :- किसी व्यक्ति, समाज अथवा देश से सम्बंधित महत्वपूर्ण, विशिष्ट व सार्वजनिक क्षेत्र की घटनाओं तथ्यों आदि का कालक्रमिक विवरण (Chronological Description) इतिहास कहलाता है। इतिहास किसी समाज विशेष की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति तथा इन स्थितियों में समय के साथ-साथ होने वाले परिवर्तनों को भी प्रस्तुत करता है।
पुरातात्विक स्रोत
किसी देश अथवा स्थान का इतिहास जानने के लिए तथा उसके उचित विश्लेषण में पुरातात्विक साक्ष्यों व स्रोतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अन्तर्गत अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, बर्तन आदि शामिल किए जाते हैं। अधिकांश पुरातात्विक साक्ष्य प्राचीन टीलों (Mounds) की खुदाई से प्राप्त किए जाते हैं।
टीला धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं, जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष विद्यमान होते हैं। ये कई प्रकार के हो सकते हैं, जैसे- एकल-सांस्कृतिक, मुख्य सांस्कृतिक और बहु-सांस्कृतिक
- पश्चिमोत्तर भारत हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है, में जिनकी स्थापना लगभग 2500 ईसा पूर्व हुई थी।
- उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के विषय में भी जानकारी मिली है कि उस समय के लोग किस प्रकार की बस्तियों में रहते थे, उनकी सामाजिक संरचना कैसी थी, वे किस प्रकार के मृद्धांड उपयोग करते थे, किस प्रकार के घरों में रहते थे, भोजन में किन अनाजों का उपभोग करते थे और किस प्रकार के औजारों तथा हथियारों का प्रयोग करते थे।
- दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बर्तन आदि वस्तुएँ कब्र में दफनाते थे तथा इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिए जाते थे। ऐसे स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं।
- किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आयी कमी को माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा सकता है।
- रेडियो कार्बन डेटिंग एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा यह पता लगाया जाता है कि, कोई वस्तु किस काल से सम्बंधित है। रेडियो कार्बन या कार्बन- 14 (C14) कार्बन का रेडियोधर्मी (रेडियोएक्टिव) समस्थानिक (आइसोटोप) है, जो सभी सजीव वस्तुओं में विद्यमान होता है।
- रेडियो कार्बन डेटिंग विधि से पता चला है कि राजस्थान और कश्मीर में कृषि का प्रचलन लगभग 7000-6000 ईसा पूर्व में भी था। पौधों के अवशेषों का परीक्षण कर विशेषतः परागों (Pollen) के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास जाना जाता है।
- पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर उनकी आयु की पहचान की जाती है तथा उनके पालतू होने एवं अनेक प्रकार के कार्य में लाए जाने का पता लगाया जाता है।
सिक्के
- सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहते हैं। मुद्राओं की बनावट एवं उनमें प्रयुक्त धातुओं की मात्रा के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। प्राचीन काल में अधिकांश मुहरें धातुओं की बनायी जाती थीं जिन सिक्कों व मुद्राओं पर कोई लेख नहीं होता था, केवल आकृतियाँ विद्यमान होती थीं, उन्हें पंचमार्क या आहत् सिक्के कहा जाता था।
- भारत में पुरातात्विक खुदाई से बड़ी संख्या में ताँबे, चाँदी, सोने और सीसे के सिक्कों के साँचे मिले हैं। इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन शताब्दियों से सम्बंधित हैं।
- भारत में मिले आरंभिक सिक्कों पर प्रतीक चिह्न मिलते हैं, परन्तु बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियाँ अंकित मिलती हैं।
- सिक्कों पर लेख एवं तिथियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा सर्वप्रथम यूनानी शासकों ने प्रारम्भ की। सिक्कों का प्रयोग दान-दक्षिणा, खरीद-बिक्री और वेतन-मजदूरी आदि के भुगतान में होता था, इसलिए सिक्कों का आर्थिक इतिहास के अध्ययन में भी महत्वपूर्ण योगदान है।
- भारत में सर्वाधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के मिले हैं, जो विशेषत: सीसे, पोटीन, ताँबे, काँसे, चाँदी और सोने से निर्मित हैं। गुप्त शासकों ने सबसे अधिक सोने के सिक्के जारी किए।
- जबकि सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के कुषाण शासकों ने प्रचलित किए। सातवाहन शासकों ने सबसे अधिक शीशे के सिक्के जारी किए थे।
अभिलेख
- अभिलेख सिक्कों से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इसके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहते हैं।
- भारत के संदर्भ में सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया के बोगाजकोई से प्राप्त हुये हैं। इस अभिलेख में इन्द्र, वरुण, एवं नासत्य नामक वैदिक देवताओं के नाम मिलते हैं।
- अभिलेख एवं दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र (पैलियोग्राफी) कहते हैं। अभिलेख मुहरों, प्रस्तरस्तम्भों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं तथा इसके अतिरिक्त मंदिर की दीवारों, ईंटों व मूर्तियों पर भी मिलते हैं।
- आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं तथा ये ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं। अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगी तथा चौथी-पाँचवीं सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा।
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