Constitutional Development of India :- संविधान (Constitution) वह वैधानिक दस्तावेज है, जिसमें शासन के उन मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन होता है, जिनके अनुरूप किसी भी देश या राज्य के शासन का संचालन किया जाता है।
किसी भी देश के संविधान से शासन के मूलभूत आदर्शों के का संकेत मिलता है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि सरकार के विभिन्न अंग किस प्रकार से कार्य करेंगे तथा उनके बीच किस प्रकार का अन्तर्सम्बंध व शक्ति संतुलन होगा।
संविधान, सरकार के साथ जनता के सम्बंधों का भी निर्धारण करता है। इसके द्वारा राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी ढाँचा भी निर्धारित होता है, जिसके अन्तर्गत जनता शासित होती है।
किसी राष्ट्र के संविधान में निहित दर्शन यह निर्धारित करता है कि, वहाँ किस प्रकार की सरकार है। संविधान सम्बंधित राष्ट्र के शासन के दर्शन की रूपरेखा तैयार करता है।
संविधान को देश की आधारभूत विधि (Fundamental Law) भी कहा जा सकता है, जो जनता के विश्वास व उनकी आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती है।
संविधान, सम्बद्ध देश के नागरिकों के लिए कुछ अधिकार सुनिश्चित करता है, साथ ही उनके कर्तव्यों को भी परिभाषित करता है।
भारत का संवैधानिक विकास Constitutional Development of India
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण किसी निश्चित समय पर नहीं हुआ, वरन् यह क्रमिक विकास का परिणाम है, जो ब्रिटिश शासन के दौरान धीमी गति से हुआ।
भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं –
1. ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अन्तर्गत संविधान का विकास।
2. ब्रिटेन की सरकार (क्राउन) के शासन के अन्तर्गत संविधान का विकास।
भारत में ब्रिटिश 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में व्यापार करने आए।
महारानी एलिजाबेथ प्रथम (Queen Elizabeth I) के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। कंपनी जिसके कार्य अभी तक मात्र व्यापारिक उद्देश्यों तक ही सीमित थे, उसने 1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (अर्थात् राजस्व एवं दीवानी न्याय के अधिकार प्राप्त कर लिए। इसके साथ ही भारत में कंपनी की क्षेत्रीय शक्ति बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
जिस समय तक (1858 ई.) ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन रहा, ब्रिटेन की संसद विभिन्न अवसरों पर अनेक कानून अथवा आदेश पत्र (Company’s Charter) जारी करके कंपनी के शासन पर नियंत्रण रखती रही। इन्हीं कानूनों ने धीरे-धीरे भारत में संवैधानिक विकास की पृष्ठभूमि तैयार की।
1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act 1773)
1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट का भारत के संवैधानिक विकास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस अधिनियम के माध्यम से भारत में इंस्ट इंडिया कंपनी पर ब्रिटिश संसदीय नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया।
तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड नॉर्थ द्वारा गोपनीय समिति (Secret Committee) की सिफारिश पर 1773 ई. में पारित एक्ट को रेग्यूलेटिंग एक्ट 1773 की संज्ञा दी गई।
इस अधिनियम के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि. भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्रों का शासन मात्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों का निजी मामला नहीं माना जा सकता है। ब्रिटिश संसद को इस संदर्भ में आवश्यक कानून बनाने एवं निर्देश देने का पूरा अधिकार है।
कंपनी के प्रशासन की देख-रेख हेतु इंग्लैण्ड में दो संस्थाएँ
1. निदेशक मण्डल (Court of Directors)
2. हितधारकों का मण्डल (Court of Proprietors)
इस अधिनियम के द्वारा बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद् का गठन किया गया। इसके अन्तर्गत पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स (Lord Warren Hastings) थे।
इसके द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर, बंगाल के गवर्नर अधीन हो गए, जबकि पहले सभी प्रेसीडेंसियों के गवर्नर एक-दूसरे से स्वतंत्र थे।
इस अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 ई. में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे।
सर एलिजा इम्पे (Elijah Impey) कलकत्ता स्थित उच्चतम न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे।
इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने एवं भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया
इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार का कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (कंपनी की गवर्निंग बॉडी) के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया। कम्पनी के लिए भारत में अपने राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।
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